काली रहस्य
भगवती काली की उपासना आदिकाल से चली आ रही है। आद्यविद्या भी यही है, आदि विद्या भी यही है। काल से परे होने से भी काली कहा गया है। काल से परे होने के कारण इनका न कोई आदि है और ना ही अन्त है। ज्ञान से परे भी यही है। इसलिये ज्ञानातीत भी यही है और समयातीत भी यही है। माँ काली ने काल को अपने नियन्त्रण में कर रखा है अतः केवल संहारक्रम नहीं, सृष्टि, स्थिति की अधिष्ठात्री भी यही है।
लोक निर्माण में शून्यावस्था में काली, किञ्चन मात्र स्पंदन में तारा, प्रकाश विमर्श शक्ति रूप में श्रीललिता त्रिपुरसुन्दरी, भुवनाधिष्ठात्री भुवनेश्वरी भी यही है।
॥ कालिका के भेद ॥
मां काली के संबंध में तंत्रशास्त्र के २५०-३०० ग्रंथ हैं जिनमें बहुत से ग्रंथ लुप्त हैं कुछ पुस्तकालयों में सुरक्षित हैं। अंश मात्र ग्रंथ ही अवलोकन हेतु उपलब्ध हैं। कामधेनु तन्त्र में लिखा हैं कि "काल सङ्कलनात् काली कालग्रासं करोत्यतः"। तंत्रों में स्थान स्थान पर शिव ने श्यामा काली (दक्षिणाकाली) और सिद्धिकाली (गुह्यकाली) को केवल "काली" संज्ञा से पुकारा हैं। श्यामाकाली (दक्षिणकाली) को आद्या, नीलकाली (तारा) को द्वितीया और प्रपञ्चेश्वरी रक्तकाली (महात्रिपुरसुन्दरी) को तृतीया कहते है। पीताम्बरा बगलामुखी को पीतकाली भी कहा है।
काली के अनेक भेद है -
कालिका द्विविधा प्रोक्ता कृष्णा रक्ता प्रभेदतः । कृष्णा तु दक्षिणा प्रोक्ता रक्ता तु सुन्दरीमता ॥
काली के अनेक भेद हैं -
पुरश्चर्याणवेः- १. दक्षिणाकाली २. भद्रकाली ३. श्मशानकाली ४. कामकलाकाली ५. गुह्यकाली ६. धनकाली ७. सिद्धिकाली ८. चण्डीकाली।
जयद्रथयामलेः- १. डम्बरकाली २. गहनेश्वरी काली ३. एकतारा ४. चण्डशाबरी ५. वज्रवती ६. रक्षाकाली ७. इन्दीवरीकाली ८. धनदा ९. रमण्या १०. ईशानकाली ११. मन्त्रमाता ।
सम्मोहने तंत्रेः- १. स्पर्शमणि काली २. चिंतामणि ३. सिद्धकाली ४. विज्ञाराज्ञी ५. कामकला ६. हंसकाली ७. गुह्यकाली।
भद्रकाली ही विपरीतप्रत्यङ्गिरा है एवं यही षोडशभुजा महिषमद्दिनी भी है। दशभुजा कात्यायनी महिषमर्दिनी भी भद्रकाली ही है।
तंत्रान्तरेऽपिः-१ १. चिंतामणि काली २. स्पर्शमणिकाली ३. सन्ततिप्रदाकाली ४. सिद्धिकाली ५. दक्षिणा काली ६. कामकला काली ७. हंसकाली ८. गुह्यकाली उक्त सभी भेदों में से दक्षिणा और भद्रकाली 'दक्षिणाम्नाय' के अंतर्गत हैं तथा गुहाकाली, कामकला काली, महाकाली और महाश्मशान काली उत्तराम्नाय से संबंधित हैं।
काली की उपासना तीन आम्नायों से होती है। तंत्रों में कहा हैं "दक्षिणोपासकः कालः" अर्थात् दक्षिणोपासक महाकाल के समान हो जाता हैं। उत्तराम्नायोपासक ज्ञान योग से ज्ञानी बन जाते हैं। उर्ध्वाम्नायोपासक पूर्णक्रम उपलब्ध करने से निर्वाणमुक्ति को प्राप्त करते हैं। दक्षिणाम्नाय में कामकाला काली को कामकलादक्षिणाकाली कहते हैं। उत्तराम्नाय के उपासक भासाकाली में कामकला गुह्यकाली की उपासना करते हैं। विस्तृत वर्णन पुरुश्वर्यार्णव में दिया गया हैं। गुह्यकाली की उपासना नेपाल में विशेष प्रचलित हैं। इसके मुख्य उपासक ब्रह्मा, वशिष्ठ, राम, कुबेर, यम, भरत, रावण, बालि, वासव, बलि, इन्द्र हुये हैं। श्रीरामचन्द्र ने इसके १७ अक्षर के मंत्र की उपासना की थी।
कामकलाकाली के मुख्य उपासक इन्द्र, वरुण, कुबेर, ब्रह्मा, महाकाल, राम, रावण, यम, विवस्वान, चन्द्र, विष्णु एवं ऋषिगण हुये हैं। इसका १८ अक्षर का मंत्र मुख्य मंत्र माना गया हैं। रुद्ररूप मिश्र बिन्दु से भगवती भद्रकाली विचरण करती रहती हैं, नृत्य करती हैं।
तंत्रों में इस प्रकार ध्यान लिखा हैं-
डिम्भं डिम्भं सुडिम्भं पच मन दुहसां झ प्रकम्पं प्रझम्पं विल्लं त्रिल्लं त्रि-त्रिल्लं त्रिखलमख-मखा खं खमं खं खमं खम् । गूहं गृहं तु गुह्यं गुडलुगड गुदा दाडिया डिम्बुदेति, नृत्यन्ती शब्दवाद्यौः प्रलयपितृवने श्रेयसे वोऽस्तु काली ॥
भद्रकाली के भी दो भेद है (१) विपरीत प्रत्यंगिरा भद्रकाली (२) षोडश भुजा दुर्गाभद्रकाली।
काली साधना गुरू आज्ञा से ही करे
मार्कण्डेय पुराणान्तर्गत दुर्गासप्तशती में जो काली अंबिका के ललाट से उत्पन्न हुई वह कालीपुराण से भिन्न हैं । उसका ध्यान इस प्रकार है :-
नीलोत्पलदलश्यामा चतुर्बाहु समन्वता ।
खट्वागं चन्द्रहासञ्च विभ्रती दक्षिणकरे॥
वामे चर्म च पाशञ्च उर्ध्वाधो भावतः पुनः।
दधती मुण्डमालाञ्च व्याघ्रचर्म वराम्बरा ॥
कृशांगी दीर्घदंष्ट्रा च अतिदीर्घाऽति भीषणा।
लोलजिह्वा निम्नरक्तनयना नादभैरवा ॥
कबन्धवाहना पीनविस्तार श्रवणानना ॥
'दक्षिणकाली' मन्त्र विग्रह हृदय में "प्रलय कालीन ध्यान " इस प्रकार हैं-
क्षुच्छ्यामां कोटराक्षीं प्रलय घनघटां घोररूपां प्रचण्डां,
दिग्वस्त्रां पिङ्गकेशीं डमरु सुणिधृतां खड़गपाशाऽभयानि ।
नागं घण्टां कपालं करसरसिरुहैः कालिकां कृष्णवर्णां
ध्यायामि ध्येयमानां सकलसुखकरीं कालिकां तां नमामि ॥
'महाकालसंहिता' के शकारादि विश्वसाम्राज्य श्यामासहस्त्रनाम में "निर्गुणध्यान" इस प्रकार हैं।
ब्रह्माविष्णु शिवास्थिमुण्डरसनां ताम्बूल रक्ताघांबराम् ।
वर्षांमेघनिभां त्रिशूल मुशले पद्माऽसि पाशांकुशाम् ॥
शङ्ख साहिसुगंधृतां दशभुजां प्रेतासने संस्थिताम् ।
देवीं दक्षिणकालिकां भगवतीं रक्ताम्बरां तां स्मरे ॥
विद्याऽविद्यादियुक्तां हरविधिनमितांनिष्कलां कालहन्त्रीं,
भक्ताभीष्टप्रदात्रीं कनकनिधिकलांचिन्मयानन्दरूपाम् ॥
दोर्दण्ड चाप चक्रे परिघमथ शरा धारयन्तीं शिवास्थाम् ।
पद्मासीनां त्रिनेत्रामरुण रुचिमयीमिन्दुचूडां भजेऽहम् ।
"कालीविलास तंत्र" में कृष्णमाता काली का ध्यान इस प्रकार दिया हैं-
जटाजूट समायुक्तां चन्द्रार्द्धकृत शेखराम्।
पूर्णचन्द्रमुखीं देवीं त्रिलोचन समन्विताम् ॥
दलिताञ्जन सङ्काशां दशबाहु समन्विताम् ।
नवयौवन सम्पन्नां दिव्याभरण भूषिताम् ॥
सुचारु दशनां नित्यां सुधापुञ्ज समन्विताम् ।
शृङ्गाररस संयुक्तां सदाशिवोपरि स्थिताम् ॥
दिड्मण्डलोज्ज्वलकरीं ब्रह्मादि परिपूजिताम् ।
वामे शूलं तथा खड्गंचक्रं वाणं तथैव च ॥
शक्तिं च धारयन्तीं तां परमानन्द रूपिणीम् ।
खेटकं पूर्णचापं च पाशमङ्कुशमेव च ॥
घण्टां वा परशुं वापि दक्षहस्ते च भूषिताम्।
उग्रां भयानकां भीमां भेरूण्डां भीमनादिनीम् ॥
कालिकाजटिलां चैव भैरवीं पुत्रवेष्टिताम् ।
आभिः शक्तिरष्टाभिश्च सहितां कालिकां पराम् ॥
सुप्रसन्नां महादेवीं कृष्णक्रीडां परात् पराम् ।
चिन्तयेत् सततं देवीं धर्मकामार्थ मोक्षदाम् ॥
कादि हादि सादि इत्यादि क्रम से कालिका के कई प्रकार के ध्यान हैं। जिस मंत्र के आदि में "क" हैं वह "कादि विद्या", जिस मंत्र के आदि में "ह" है वह "हादि विद्या", मंत्र में वाग् बीज हो वह "वागादि विद्या" तथा जिस मंत्र के प्रारम्भ में "हूं" बीज हो वह" क्रोधादि विद्या" कहलाती हैं। "नादिक्रम" में आदि में "नमः" का प्रयोग होता हैं एवं "दादिक्रम" में मंत्र के आदि में "द" होता हैं जैसे "दक्षिणे कालिके स्वाहा"। "प्रणवादि क्रम" में मंत्र के प्रारंभ में "ॐ" का प्रयोग होता हैं।
॥ काली की उत्पत्ति ॥
दशमहाविद्याओं में प्रथम महाविद्या माँ काली का आविर्भाव अवन्तिदेश (उज्जैन) प्रदेश में फाल्गुन कृष्णा एकादशी तिथि महारात्रि में है। पुराणों के अनुसार फाल्गुन शुक्ला द्वादशी को विष्णु-मधुकैटभ युद्ध प्रसंग में महाकाली का प्राकट्य हुआ।
उपासना में दुर्गार्चन तथा महाविद्याओं के अर्चन का क्रम विशेष प्रचलित है। निगम में दुर्गार्चन का प्रचलन है तो आगम में दशमहाविद्याओं का अर्चन है।
दुर्गासप्तशती के पञ्चम अध्याय के अनुसार पार्वती के शरीर से जब कौशिकी उत्पन्न हुई तब माँ पार्वती का वर्ण काला हो गया।
दशमहाविद्याओं के समष्टि मन्त्रों से काली मन्त्र इस प्रकार है -
ॐ क्रींक्रींक्रीहूं हूं हींहीं दक्षिणेकालिके क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा। पूर्वदिशि महारात्रौ आश्विनकृष्णाष्टम्याविर्भूतां कृष्णवर्णा शवारूढां महाघोरदंष्ट्र ललज्जित्व हसन्मुखीं सद्यःछिन्नशिर-कृपाण-वरदाभय भुजा मातृकावर्णात्म-मुण्डमालाधरां सहस्त्रशव-कर-काञ्चीयुतां घोररूपशिवाभिरावृत-श्मशान निलयां महाकाल-हृदयोपरि-नृत्तयन्तीं एकाक्षर-गणेशप्रिया हेतुकवटुक-लालितां अप्सरो-मण्डलस्थां महामधुमती-यक्षिणीसेव्यां उपनिषत्सु. संवर्गविद्यारूपिणीं कृष्णावताररूपां आद्यां विद्याराज्ञीसंज्ञिकां श्रीदक्षिणकालिका श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
उक्त मन्त्र के अनुसार कालिका की उत्पत्ति आश्विन कृष्णा अष्टमी को हुई। परन्तु अन्य पौराणिक संदर्भ में राम-रावण युद्ध के समय कालिका आश्विन कृष्णा अष्टमी को युद्ध देखने पधारी एवं रावण का पराक्रम देखकर खुश हो रही थी तब देवताओं ने राम पर प्रसन्न होने की प्रार्थना की। आश्विन शुक्ला एकम को कालिका राम पर प्रसन्न हुई तथा दशमी को रावण का वध हुआ।
उसी संदर्भ में नवरात्र पर्व मनाया जाता है।
रावण काली का उपासक था, उसने गुह्यकाली, कामकलाकाली की भी उपासना की थी। इसका तात्पर्य यह है कि काली का प्राकट्य उक्त तिथि से बहुत पहले हुआ था।
मंत्र के अनुसार काली के अंग देवता इस प्रकार है
शिव - महाकाल ।
गणेश - एकाक्षर "गं"।
बटुक - हेतुक।
अप्सरा - लालिता (ललिता)।
यक्षिणि - महामधुमती ।
अवतार - कृष्णावतार ।
संज्ञा - विद्याराज्ञी।
काली - दक्षिणकाली।
काली की उग्र साधना में शवसाधना, वीरसाधना, चित्तासाधना, लतासाधना (श्रीचक्रार्चन-पात्रवन्दना, शक्ति शोधन) क्रम विशेष है। विशिष्ट क्रम में काली की पन्द्रह नित्याओं के यन्त्रार्चन का दुर्लभ विधान है।
बिना कुमारी पूजन के शक्ति उपासना अधूरी है। उपासना क्रम में निगम शास्त्रों में दुर्गार्चन का प्रचलन है तो आगम में दशमहाविद्याओं का अर्चन है।
गुह्यकाली उपासना अतिगूढ है, कामकलाकाली भी विशिष्ट है, इनकी उपासना उत्तर व उर्ध्वाम्नाय मार्ग की है। नेपाल में सती का गुह्यांग गिरा था एवं कामाख्या में योनि गिरने से स्वयं सिद्ध स्थान है। गुह्यकाली की उपासना राम, भरत, च्यवन, जाबालि, रावण इत्याटि चौबीस उपासकों ने की थी। कामकला काली के भी ये विशिष्ट साधक रहे हैं।
हनुमानजी ने सूर्यपुत्री सौवर्चला से विवाह कर गुह्यकाली की वामाचार से उपासना की थी। दक्षिण भारत में सौवर्चला का मन्दिर है, इसका उल्लेख अगस्त संहिता व अन्यत्र भी है।
गुह्यकाली व कामकलाकाली के 17 अक्षर से 10000 अक्षर के मंत्र है। गुह्यकाली पंचपुरी मध्य अष्टश्मशान में पंचप्रेतासन के ऊपर महाकाल सहित विराजमान है। इनकी दशशिर व शतशीर्षा रूप में विशेष पूजा होती है।
तंत्रक्षेत्र में दश महाविद्याओं का अधिक प्रचलन है, इसके अलावा अन्य प्रमुख विद्याओं का 16, 18, 32, 64, 27, 12, 51 विद्याओं व शक्तियों का वर्णन इस प्रकार है -
॥ षोडश महाविद्या ॥
भैरव मत से वनदुर्गा, शूलिनी, अश्वारूढा, त्रैलोक्यविजया, वाराही, अन्नपूर्णा तथा दशमहाविद्यायें है।
॥ अष्टादश महाविद्या ॥
दशमहाविद्याओं के अतिरिक्त अन्नपूर्णा, नित्या, महिषमर्दिनी, दुर्गा, त्वरिता, त्रिपुरा, त्रिगुटा, जयदुर्गा है।
॥ षोडश शक्ति ॥
काली, कराली, उमा, सरस्वती, श्री, उमा, उषा, लक्ष्मी, श्रुति, स्मृति, धृति, श्रद्धा, मेधा, मति, कान्ति, आर्या।
॥ द्वात्रिंशती शक्ति ॥
विद्या, ह्रीं, पुष्टि, प्रज्ञा, सिनीवाली, कुहु, रुद्रा, वीर्या, प्रभा, नन्दा, उषा, ऋद्धिदा, कालरात्रि, महारात्रि, भद्रकालि, कपर्दिनी, विकृति, दण्डिनी, मुण्डनी, सेन्दुखण्डा, शिखण्डिनी, निशुम्भ शुम्भमथनी, महिषमर्दिनी, इन्द्राणी, रुद्राणी, शंकरार्द्धशरीरिणी, नारी, नारायणी, त्रिशूलिनी, पालिनी, अम्बिका, ह्लादिनी।
॥ चतुःषष्टि द्वात्रिंश शक्ति एवं षोडश शक्ति ॥ (शारदा तिलके)
अम्बिका वाग्भवी दुर्गा श्रीशक्तिश्चोक्तलक्षणा । ब्रह्मयाद्याः पूर्ववत् प्रोक्ताः कराली विकाराल्युमा ॥ सरस्वती श्रीदुर्गाषा लक्ष्मी श्रुत्यौ स्मृतिर्धतिः । श्रद्धा मेघा मतिः कान्तिरार्या षोडशशक्तयः ॥ खड्गखेटकधारिण्य श्यामाः पूज्याः स्वलङ्कृताः । विद्या ह्रीं पुष्टयः प्रज्ञा सिनीवाली कुहूः पुनः ॥ रुद्रावीर्या प्रभा नन्दा स्याद्योषा ऋद्धिदा शुभा । कालरात्रिर्महारात्रि र्भद्रकाली कपर्दिनी । विकृतिद्वंण्डि मुण्डिन्यौ सेन्दुखण्डा शिखण्डिनी । निशुम्भशुम्भमथनी महिषासुरमर्दिनी ॥
इन्द्राणी चैव रुद्राणी शङ्करार्द्धशरीरिणी । नारी नारायणी चैव त्रिशूलिन्यपि पालिनी ॥
अम्बिका ह्लादिनी चैव द्वात्रिंशच्छक्तयः स्मृता । चक्रहस्ताः पिशाचास्याः सम्पूज्याश्चारुभूषणा ॥ पिङ्गलाक्षी विशालाक्षी समृद्धिर्वृद्धिरेव च । श्रद्धा स्वाहा स्वधाऽभिख्या माया संज्ञा वसुन्धरा ॥ त्रिलोकधात्री सावित्री गायत्री त्रिदशेश्वरी । सुरूपा बहूरूपा च स्कन्दमाताऽच्युतप्रिया ॥
विमला चामला पश्चादरुणी पुनरारुणि । प्रकृतिर्विकृतिः सृष्टिः स्थितिः संहृतिरेव च ॥
संध्या माता सति हंसी मर्दिका कुब्जिकाऽपरा । देवमाता भगवती देवकी कमलासना ॥
त्रिमुखी सप्तमुख्यान्या सुरासुरविमर्दिनी । लम्बोष्ठी चोर्ध्वकेशी च बहुशीर्षा वृकोदरी ॥
रथरेखाह्वया पश्चाच्छशिरेखा तथाऽपरा । ततोभुवनपालाख्य ततः स्यान्मदनातुरा गगनवेगा पवनवेगा च तदनन्तरम् ॥ अनङ्गाऽनङ्गमदना तथैवानङ्गमेखला ॥ अनङ्गकुसुमा विश्वरूपाऽसुरभयङ्करी ॥ अक्षोभ्या सत्यवादिन्यौ वज्ररूपा शुचिव्रता ॥ वरदाख्या च वागीशा चतुःषष्टिः समीरिताः ॥
|| सप्तविंशति महाविद्या ॥
काली तारा भैरवी च षोडशी भुवनेश्वरी । अन्नपूर्णा महामाया दुर्गा महिषमर्दिनी ॥
त्रिपुरा बगला छिन्ना धूमा च त्वरिता तथा । मातंगी धनदा गौरी त्रिपुटा परमेश्वरी ।
प्रत्यंगिरा महामाया भेरुण्डा शूलिनी तथा । चामुण्डा सर्वदा बाला तथा कात्यायनी शिवा । सप्तविंशति महाविद्याः सर्वशास्त्रेषु गोपिताः ॥
॥ द्वादशविद्या ॥ (शाक्तानन्द तरंगिणी)
काली नीला महादुर्गा त्वरिता छिन्नमस्तिका । वाग्वादिनी चान्नपूर्णा तथा प्रत्यङ्गिरा पुनः ॥ कामाख्यावासिनी बाला मातंगी शैलवासिनी । इत्याद्याः सकला विद्याः कलौपूर्ण फलप्रदाः ॥
|| एकपञ्चाशत् विद्या ॥
(महाकाल संहितायाम्)
आदौ ज्ञेया महालक्ष्मीस्ततो वागीश्वरी मता । अश्वारूढा च मातङ्गी नित्यक्लिन्ना ततः परम् ॥ भुवनेशी तथोच्छिष्ट चाण्डालिनी भैरवी ततः । शूलिनी वनदुर्गा च त्रिपुटा त्वरिता ततः ॥
अघोरा जयलक्ष्मीश्च वज्रप्रस्तारिणी ततः । पद्मावत्यन्नपूर्णा च काली संकर्षिणी ततः ॥
धनदा कुक्कुटी भोगवती च शबरेश्वरी । कुब्जिका सिद्धिलक्ष्मीश्च बाला च त्रिपुरा ततः ॥
तारा दक्षिणकाली च छिन्नमस्ता त्रिकण्टकी। ततो नीलपताका च चण्डघण्टा ततः परम् ॥
चण्डेश्वरी भद्रकाली गुह्यकाली ततः परम् । अनङ्गमाला चामुण्डा वाराही बगलापि च ॥
जयदुर्गा नारसिंही ब्रह्माणी वैष्णवी ततः । माहेश्वरी तथेन्द्राणी हरसिद्धा तथोऽपि वा ॥
फेत्कारी लवणेशी च नाकुली मृत्युहारिणी । ततः कामकलाकालीत्येक पञ्चादशदीरिता ॥
काली विद्या के संबंध में विशिष्ट जानकारी कालीतन्त्र, काली उपासना, काली रहस्य, अग्निपुराण, कुब्जिका तन्त्र, आंदि तथा कई तंत्र ग्रंथों से तथा गुह्यकाली, कामकला काली की साधना संबंधी साहित्य "महाकाल संहिता" से अन्वेषण कर संकलित व सरल किया गया है।
(लेखक :- परम आदरणीय चिद् घनानन्दनाथ जी )