Panchakshri Maha Mantra

पंचाक्षर_महामंत्र


भगवतीके कलियुगीन प्राणियोंके मुक्तिका उपाय पूछनेपर भगवान शिव उन्हें पंचाक्षर मंत्रके माहात्म्यका वर्णन करते हुए कहते हैं कि कलियुगी व्यक्ति इस मंत्रका आश्रय लेकर मुक्त हो सकता है। जो अकथनीय या अचिंतनीय पाप हैं वे भी इस जापसे छूट जाते हैं। भूतलपर पतित हुआ व्यक्ति भी इस मंत्रके प्रभावसे पवित्र हो जाता है। ऐसा तो भगवान शिव शपथ लेकर कहते हैं।


मयैवमसकृद्देवि प्रतिज्ञातं धरातले।

पतितोपि विमुच्येत मद्भक्तो विद्ययानया।।


फिर देवी कहती हैं कि पतित हुआ व्यक्ति तो नारकी ही होगा। इसमें संदेह नहीं है। तब भगवान कहते हैं कि देवी! आप सत्य कह रही हैं। पापी व्यक्ति भले ही विविध प्रकारसे पूजन करें वह नरक तो भोगेगा। परंतु पंचाक्षरीमें यह विधान नहीं है। यह अवश्य ही मुक्ति देने वाला है। अतः किए हुए कर्मफल भोगने ही होते हैं, यह उक्ति इस मंत्रपर प्रभावित नहीं होती। यह बड़ी अद्भुत बात है। संसार बद्ध या मुक्त जीव; कोई भी इसका जापकर मुक्त हो सकता है।


बद्धो वाप्यथ मुक्तो वा पाशात्पञ्चाक्षरेण य:।

पूजयेन्मां स मुच्येत नात्र कार्या विचारणा।।


वैसे तो इस मंत्रका विधान है कि पहले नमः कहा जाए और बादमें शिवाय। परंतु यह विधान केवल दीक्षितों हेतु ही है।


आदौ नमः प्रयोक्तव्यं शिवाय तु तत: परम्।।


यह पंचाक्षरी श्रुतियोंकी सिरमौर है। इसका एक देवीके रूपमें ध्यान करना चाहिए कि वे स्वर्ण कांति वाली देवी श्वेत कमलासना हैं। चतुर्हस्ता और त्रिनेत्रा हैं। हाथोंमें नीला और लाल कमल, वर तथा अभय सुशोभित हो रहे हैं।


तप्तचामीकरप्रख्या पीनोन्नतपयोधरा।।

चतुर्भुजा त्रिनयना बालेन्दुकृतशेखरा।

पद्मोत्पलकरा सौम्या वरदाभयपाणिका।।

सर्वलक्षणसंपन्ना सर्वाभरणभूषिता।

सितपद्मासनासीना नीलकुञ्चितमूर्द्धजा।।


आगे भगवान शिव कहते हैं देवी! इसमें किंचित भेदसे यह तुम्हारा भी मूलमंत्र है। बस इसमें पांचवे वर्ण "य"में बारहवां स्वर "ऐ" लगा देना चाहिए। अर्थात "नमः शिवायै" ऐसा जानना चाहिए।


तत्रापि मूलमंत्रोयं किंचिद्भेदसमन्वयात्।

तत्रापि पंचमो वर्णो द्वादशस्वरभूषित:।।


यह दिव्य महामंत्र सतत ध्येय है। साधु पुरुषों द्वारा सर्वदा जाप्य है। जो किसी उद्देश्य हेतु आतुर हैं उनको नमः शब्द आगे-पीछे लगाकर ही जप करना चाहिए।


नमोन्तं वा नमः पूर्वमातुर: सर्वदा जपेत्।।


इस मंत्रके अद्भुत प्रभावमें स्कंदपुराण एक इतिहास कहता है कि यदुवंशमें एक राजा दशार्ह नामसे थें। उनका विवाह कलावती नामकी शिवभक्तासे हुआ जिसको भगवान दुर्वासाने पंचाक्षरी दिया था। विवाहकी रात संगवकी इच्छासे राजाने जब पत्नीको बुलाया तो उनके मना करनेपर बलपूर्वक रति करना चाहा जिससे राजाका शरीर जलने लगा। तब रानीने कहा मैं पंचाक्षरी जपती हूं और आप वेश्यावृत्ति, मद्यपान आदि कुकर्म करने वाले मुझसे संपर्क नहीं कर सकतें। राजा कहते हैं मुझे दीक्षा दे दो। रानी कहती है आप मेरे पति हैं, गुरु हैं। मैं ऐसा नहीं कर सकती। आप ब्राह्मणश्रेष्ठ गर्गाचार्यजीसे दीक्षा लीजिए। आगे उनका जीवन सुखमय रहा। ऐसा यह दिव्य महामंत्र है। जबतक इस मंत्रका स्मरण नहीं है तब तक ही दुख आदि घेरे रहते हैं।


तावद्भ्रमन्ति संसारे दारुणे दु:खसंकुले।

यावन्नोचारयन्तीमं मंत्रं देहभृत: सकृत्।।


इसका माहात्म्य अनेक ग्रंथोंमें वर्णित है। लिंगमहापुराण तो कहता है कि किसी भी व्रतकी पूर्णता तभी होती है जब पंचाक्षरीका जाप किया जाए। इसका ऐसा अद्भुत महत्व है।


समाप्तिर्नान्यथा तस्माज्जपेत्पंचाक्षरीं शुभाम्।।


आगे इसके प्रत्येक अक्षरोंका रंग, देवता, ऋषि आदिका विशद विवेचन भी मिलता है। यह शिव-पार्वतीका संयुक्त जाप्य मंत्र है। द्विजों हेतु एवं विप्रस्त्री हेतु नमः आगे लगाकर शिवाय; इस प्रकार जाप किया जाए। द्विजेतर और अन्य हेतु शिवाय आदिमें लगाकर जप किया जाना चाहिए।


द्विजानां च नमः पूर्वमन्येषां च नमोन्तकम्।।


अतः इस महामंत्रके महनीय गुणोंका वर्णन करते हुए कहते हैं कि देवी! अतः इस पंचाक्षरीसे हम दोनोंका जप, हवन आदि सभी पूजा विषयक साधन संपन्न करने चाहिए। प्रणव केवल अधिकृत व्यक्ति ही लगावें।


तस्मादनेन मंत्रेण मनोवाक्कायभेदत:।

आवयोरर्चनं कुर्याज्जपहोमादिकं तथा।।


इति शिवम्